Pages

Tuesday, September 26, 2017

रतलाम बनाने वालों को जलेबी ज्यादा पसंद रही होगी

रतलाम बनाने वालों को जलेबी ज्यादा पसंद रही होगी

रतलाम की सारी सड़कें जलेबी जैसी गोल गोल घुमावदार हैं। जैसे दो बत्ती से कॉन्वेंट स्कूल गोल, दो बत्ती से छत्री पुल गोल, दो बत्ती से न्यू रोड़ गोल, दो बत्ती से पॉवर हाउस रोड़ गोल, दो बत्ती से फ्रीगंज गोल, इंदिरा नगर मेन रोड़ गोल, कस्तूरबा नगर मेन रोड़ गोल, सैलाना बस स्टैंड से गायत्री सिनेमा रोड़ गोल, सैलाना बस स्टैंड से लोकेन्द्र सिनेमा गोल, लोकेन्द्र सिनेमा से जेल रोड़ गोल,डालूमोदी बाजार से घांस बाजार गोल, थावरिया बाजार ........
अगर कुछ सीधी लाइन में है तो लोहार रोड से त्रिपोलिया गेट ! (गूगल अर्थ पर देख लो )

जी हां! किसी ज़माने में किसी व्यक्ति ने उसकी सुविधा से बरसात के मौसम में कोई पगडंडी बना दी होगी, रतलाम नगर निगम ने उसी पर डामर पोत दिया।

हद तो तब हो गई जब कॉर्पोरेशन(कर—परेशान) भी यही करे। रिलायंस पेट्रोल पम्प से राजस्व कालोनी गोल...... आपको क्या लगता है क्या रतलाम के इंजीनियरों को सीधी लाइन खींचना नहीं आती?
सीवरेज का पाईप,जल वितरण का पाईप,टेलिफोन वायर,बिजली कनेक्शन का वायर, केबल टीवी का वायर, भविष्य में कुकिंग गैस लाईन इन गोल—गोल गलियों में कैसे लगाई जा सकेगी? स्कूल बसें इन गलियों से कैसे निकलेंगी? फायर ब्रिगेड क्या यहॉं तक पहुॅंच सकेगा? कोई भी कॉलोनाईज़र 25—50 प्लाट के साथ कोई कॉलोनी/परिसर काट दे, पर उसके रहवासी मूलभूत सुविधाओं को कैसे प्राप्त करेंगे? इसको लेकर उसकी कोई जबावदारी नहीं बनती। जैसा रायता फैलाना है फैला सकते हैं।
आज सभी का फोकस छत्रीपुल पर है... कल सागोद रोड़ की पुलिया या डाट की पुलिया पर होगा क्या फर्क पड़ जायेगा।
😡
कोई दूरदृष्टि नहीं। भविष्य के रतलाम की बनावट को लेकर कोई स्पष्ट सोच नहीं। जब कोई बडी दुर्घटना हो जायेगी तब की तब देखेंगे वाली नीतियॉं ही इस प्रकार के जनाक्रोश का कारण बनती रहेगी।

चं​डीगढ़ से भी पहले, ज्यादा दूर नहीं इंदौर को देख लो और जान लो विकास क्या होता है।

अनिल पेंडसे 9425103895

Friday, September 15, 2017

दो वर्ष की इभ्या की सहमति कौन और कैसे लेगा?


नीमच के अनामिका व सुमित राठौर दीक्षा ले रहे हैं। क्या इभ्या के वयस्क होने के पहले उसको उसके माता पिता के प्रेम से वंचित कर दी जाने वाली दीक्षा संभव है? क्या अपने मातृत्व,पितृत्व रूपी कर्तव्यों को इस प्रकार से अधर में छोड कर दीक्षा लेना उचित है? क्या दीक्षा दिलाने वाले आचार्य ने व सहमति देने वाले परिवार के सदस्यों ने इभ्या की ओर से इस प्रकार की दीक्षा पर भी कभी विचार किया है? क्या सर्व सामान्य जनमानस के मन में उभरते हजारों प्रश्नों पर कोई उत्तर है?
इसके पहले भी कक्षा 12वीं के एक टॉपर बच्चे ने दीक्षा लेने के समाचार पढने को मिले थे। जबकि उसके परिवार के सदस्य पूर्ण सहमत नहीं थे यह भी समाचार पत्रों से ही जानकारी प्राप्त हुई थी।

ऐसे समाचारों को पढ़कर ऐसा लगता है कि *ऐसे युवा जिनको अभी समाज के विकास में अपनी भागीदारी निभानी बाकि है* विशेष कर *इस आयु में* क्या इस प्रकार के निर्णय उचित प्रतीत होते हैं। क्या शिक्षित बच्चों को राष्ट्र की मुख्यधारा में रहते हुए, अपने कर्तव्यों के पालन के स्थान पर ऐसा निर्णय उचित है? ऐसे निर्णयों का विवेचन धार्मिक बनकर नहीं वरन सामान्य मानव होकर करना होगा।